Saturday 25 April 2015

उल्वा परिमार्जन –

उल्वा परिमार्जन
·         उल्व = गाढा या जमा हुआ
·         परिमार्जन =  साफ करना 
जातमात्रं विशोध्योल्वाद्बलं सैन्धवसर्पिषो ।
प्रसूतिक्लेशितं चानु बलातैलेन सेचयेत् ॥
                                                                 (अ॰हृ॰उ॰१/१)
“अथ खलु जातमात्रमेव बालमुल्बात् सैन्धवसर्पिषा मार्जयेत् ।”
                                    (अ॰सं॰उ १/२) 
जातमात्रं तत्काल एव बालमुल्बात् वेष्टितो जायते येन गर्भः स उल्बस्तस्मात् सैन्धवयुक्तेन सर्पिषा मार्जयेच्छाधयेत् ॥ ( इन्दुकृत – शशिलेखा टीका )
अर्थात् बालक के जन्म लेते ही उसके चारो ओर मे हुए उल्व (गाढे कफयुक्त पदार्थ) को सैन्धव लवण व सर्पि(घृत) से मार्जित करते हुए साफ कर देना चाहिये । उसके बाद प्रसव काल के कष्ट से पीडित बालक को बला तैल से सिंचित (अभ्यंग/अभ्यक्त) करना चाहिये ऐसा आचार्य वाग्भट्ट का आदेश है ।
अथ जातस्योल्बमपनीय, मुखं च सैन्धवसर्पिषा विशोध्य  (सु॰शा॰१०/१२)
बालक के जन्म लेते ही प्रथम उल्व (जरायु) को हटाकर, मुख का सैन्धव व सर्पि से विशोधन (सफाई) करे ।
अथेत्यादि उल्बं जरायुं, विशोध्य अपनीय; मुखं च विशोध्य निर्मलीकृत्य,
तदपि मुखकण्ठगतजरायुकफापनयनेन
तदुक्तं- जरायुणा मुखे च्छन्ने कण्ठे चकफवेष्टिते” (शा.२) इति । ( निबन्धसंग्रह डल्हण टीका )
अथास्य ताल्वोष्ठकण्ठजिह्वाप्रमार्जनमारभेताङ्गुल्या सुपरिलिखितनखया सुप्रक्षालितोपधानकार्पाससपिचुमत्या
प्रथमं प्रमार्जितास्यस्य चास्य शिरस्तालु कार्पासपिचुना स्नेहगर्भेण प्रतिसञ्छादयेत्
ततोऽस्यानन्तरं सैन्धवोपहितेन सर्पिषा कार्यं प्रच्छर्दनम् (च॰शा॰८/४३)                                               
इसके बाद शिशु के तालु,ओष्ठ,कण्ठ,जिह्वा को नख कटे हुए अंगुली के ऊपर स्वच्छ एवं सफेद रूई को लपेट कर कपास पिचु द्वारा साफ करना चाहिये ।
Conclusion  :- उल्व परिमार्जन से यहां सद्यजात बालक की त्वचा के चारो लिपटी हुइ जरायु (Vernix caseosa) से लेना चाहिये क्योंकि आचार्यो के मतो के अवलोकन से यह स्पष्ट हो रहा है कि उल्व निश्चित रूप से गर्भोदक तो नहीं हैं क्योंकि यदि यह गर्भोदक होता तो आचार्य पुनः मुखशोधन करने का विधान क्यों करते??? जैसा की आचार्य डल्हण ने भी अपनी निबन्ध संग्रह टीका में उल्व को परिभाषित करते हुये बताया है कि उल्व जरायु ही है अतः उल्व से जरायु को ग्रहण करना चाहिये ऐसा निष्कर्ष प्राप्त होता है ।
उल्व-परिमार्जन की आवश्यकता ??? –

बालक के जन्म के तुरन्त बाद ही उसकी उल्व (जरायु) को हटा देना चाहिए नहीं तो उसकी श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया में रुकावट उत्पन्न हो सकती है तथा गर्भोदक के साथ-साथ उल्व भी श्वसन की चेष्टा में श्वसन नलिका में जा सकती है जिससे उल्बक रोग होने की संभावना हो जाती है तथा शिशु की मृत्यु भी हो सकती है । अतः बालक के जन्म के तुरन्त बाद आचार्यों ने उल्व (जरायु) के सैन्धव-सर्पि से मार्जन (साफ करने) का निर्देश किया है । 

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