शास्त्र (तन्त्र) लक्षण
“शिष्यतेऽनेनेति शास्त्रम्” (वाचस्पत्यम्)
“शंसनाद्वा शास्त्रम्” (निरुक्त)
शासन एवं शंसन (प्रतिपादन) करने के कारण ‘तन्त्र’ की ‘शास्त्र’ संज्ञा है। हित, नित्य, धर्म एवं शुभादि भावों में प्रवृत्ति तथा तद्विपरीत अहित, अनित्य, अधर्म एवं अशुभादि भावों से निवृत्ति परक शासन अथवा ब्रह्म, सृष्टि, जीव, ईश्वरादि विनिगूढतत्त्वों का शंसन (प्रतिपादन) वही शास्त्र कर सकता है, जो गुणों से समन्वित और यथासम्भव दोषों से विनिर्मुक्त हो। इस प्रकार भूत समुदाय पर शासन एवं तत्त्व विवेचनरूप शंसन, ये दोनों महागुण शास्त्र के हो सकते है। इन्हीं का विस्तार शास्त्र के अनेकोनेक गुण गिनाकर किया जा सकता है।
“विविधानि हि शास्त्राणि भिषजां प्रचरन्ति लोके” चरक उक्त वचनानुसार संसार में विविध शास्त्र प्रचलित है, किन्तु सभी शास्त्र सर्वत्र समान रूप से अभीष्ट की सिद्धि के साधक नहीं होते है।
“शास्त्रमेवादितः परीक्षेत।” (च.वि. ८/१३)
अतः शास्त्राध्ययन के पूर्व शास्त्र की परीक्षा करने का आदेश आचार्य चरक ने किया है। सर्वप्रथम बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि वह जिस शास्त्र का अध्ययन करना चाहता है, उसकी गुणदोषमयी विवेचना करके उत्तम शास्त्र का ही निर्वाचन करे। उभयलोक हितकारक शास्त्र को श्रेष्ठ माना गया है, इस क्रम में आयुर्वेद की गणना सर्वप्रथम की जानी चाहिये, क्योंकि यह शास्त्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष तक की विवेचना करके ऐहिक एवं पारलौकिक हित साधना करता है।
रोगान् शास्तीति उपवेदोऽपि शास्त्रमुच्यते। आयुरारोग्यदानेन धर्मार्थकामादीनां शासनाद्वा शास्त्रम्।
मरणात् त्रायत इति वा शास्त्रम्। (सु.सू. ४/८ डल्हण)
तत्रायुर्वेदः शाखा विद्या सूत्रं ज्ञानं शास्त्रं लक्षणं तन्त्रमित्यनर्थान्तरम् (च.सू. ३०/३१)
चरक संहिता विमानस्थान अध्याय ८ में शास्त्र परीक्षा का निर्देश किया गया है। इसके लिये यहां पर ग्राह्य शास्त्र /तंत्र के १८ गुण बताये गये है। अतः यहां चरक संहिता विमानस्थान अध्याय ८ के आधार पर ग्रहणीय तंत्र के निम्न गुण निर्धारित किये गये है।
तन्त्र – व्याकरण शास्त्र के अनुसार तन्त्र शब्द ‘तन्’ धातु से बना है जिसका अर्थ है ‘विस्तार’। तन्यते विस्तार्यते ज्ञानम् अनेन् इति तन्त्रम्।
‘तनोति त्रायति तन्त्र’ जिसका अभिप्राय है – तनना, विस्तार, फैलाव इस प्रकार इससे त्राण होना तन्त्र है। भारतीय परम्परा में किसी भी व्यवस्थित ग्रन्थ, सिद्धान्त, विधि, उपकरण, तकनीक या कार्यप्रणाली को भी तन्त्र कहा जाता है।
लक्षण – का अर्थ है – ‘पहचान का चिह्न’ या गुणधर्म या प्रकृति। किसी वस्तु या पदार्थ की वह विशेषता जिसके द्वारा वह पहचाना जायें। वे गुण आदि जो किसी पदार्थ में विशिष्ट रूप से हों और जिनके द्वारा सहज में उसका ज्ञान हो सके। जैसे – आकाश के लक्षण से जान पडता है कि आज पानी बरसेगा। शरीर में दिखाई पडने वाले वे चिह्न आदि जो किसी रोग के सूचक हो भी लक्षण कहलाते है।
अतः उत्तम शास्त्र वही है जो तन्त्र के बताये उक्त गुणों से युक्त एवं तन्त्रदोषों से रहित हो एवं अपने प्रयोजन को पूर्ण करने में सक्षम है।
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